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अंतिम संवाद: नदी और समंदर

पहाड़ अटल खड़ा है, वर्षों पुराना,

उसके ऊपर की कठोर बर्फ,

जो बाहर से सख्त लगती है,

लेकिन भीतर से माँ जैसी कोमल।

यह बर्फ, समय के बदलाव से,

नदी का रूप लेकर बह निकलती है।

गर्मी की तपिश से पिघलते ही,

बर्फ की ये कोमलता,

नदी बनकर अपना सफर शुरू करती है।

यह सफर सिर्फ यात्रा नहीं,

यह बदलाव का प्रतीक है।

नदी, पहाड़ों से निकलती हुई,

अपना रास्ता खुद बनाती है,

कभी सीधी, तो कभी टेढ़ी।

वह अपने रास्ते में

हर पत्थर को काटती है,

हर बाधा को पार करती है।

उसका संघर्ष, उसकी ताकत बनता है।

जब वह झरने में बदलती है,

तो जैसे उसकी यात्रा में

चार चाँद लग जाते हैं।

लेकिन यह चमक

उसके दर्द को नहीं छुपा पाती।

सिर्फ नदी ही जानती है

उस संघर्ष और त्याग का अर्थ।

घाटी में उतरते ही,

वह अपने साथ पहाड़ का अंश ले आती है।

बर्फ की शीतलता भी साथ चलती है,

पर अब उसे लगता है

कि यात्रा थोड़ी आसान हो गई है।

तभी, उसे मिट्टी मिलती है।

यह मिट्टी उसकी पारदर्शिता को

धीरे-धीरे धुंधला कर देती है।

जैसे जीवन के अनुभव

हमें पहले जैसा निर्मल नहीं रहने देते।

नदी को अब जीवन का नया स्वरूप मिलता है।

उसके पानी में जीव जन्म लेते हैं।

ये जीव उसकी गोद में पलते हैं,

जैसे माता अपने बच्चों को पालती है।

नदी अपनी सारी शीतलता,

स्नेह और प्रेम से,

उनका पोषण करती है।

लेकिन धीरे-धीरे वह अपने अस्तित्व को

उनमें समर्पित कर देती है।

फिर एक दिन, इंसानों से मिलते-मिलते,

नदी खुद प्रदूषित हो जाती है।

उसकी निर्मलता और शुद्धता

सब खो जाती है।

वह अब वह नदी

नदी नहीं रही,

जिसने पहाड़ों को बदल दिया था।

अब वह अकेली है,

पर शायद अपने अंत में

फिर से एक नए रूप में जन्म लेने की प्रतीक्षा कर रही है।

अंत के समीप,

नदी धीमी और ठहरी हुई हो जाती है।

जिस उफान के साथ उसने शुरुआत की थी,

अब वो उत्साह उसमें नहीं रहता।

वो थम जाती है,

जैसे उम्र के अंतिम पड़ाव पर,

हम शांत हो जाते हैं।

यह शायद नदी का बुढ़ापा है।

इन अंतिम दिनों में,

वो फिर से एक बार निर्मल हो जाती है।

जैसे नई-नवेली दुल्हन।

पर उसे नहीं पता,

कि वो जा कहाँ रही है।

अंततः, नदी समंदर में मिल जाती है।

उसके भीतर सवालों का सैलाब है।

"मैंने इतना कुछ सहा,

हर पत्थर, हर मोड़ को अपनाया।

हर बदलाव को जिया।

तुमने क्या किया?"

समंदर चुपचाप सुनता रहता है।

नदी बोलती रहती है,

गुस्से और शिकायतों के साथ।

आखिरकार,

समंदर अपनी गहराई भरी आवाज़ में कहता है,

जवाब मेरी गहराइयों में है।

मैंने उन सभी जीवों को घर दिया,

जिन्हें तुमने अपने साथ बांध लायी ।

मैंने तुम्हारे सारे कंकड़-पत्थर,

और यहाँ तक कि वो रेत भी अपनाई,

जिसे तुम नापसंद करती थीं।

मैंने उन्हें अपनी गोद में जगह दी।"

नदी फिर भी हार नहीं मानती।

"मैंने तुम्हारे लिए

कितने बदलाव सहे।

तुमने मेरे लिए क्या किया?"

समंदर अब भी शांत रहता है।

थोड़ी देर बाद,

हौले से मुस्कुराते हुए कहता है,

इंतजार।